विदेश मंत्री के रूप में प्रचलित परंपरा को दरकिनार करते हुए पिछली सरकार में विदेश सचिव रहे डॉ एस जयशंकर को नई सरकार में विदेश मंत्री चुना गया है। विदेश नीति के लिए ये बड़ा संकेत है।
[डॉ. श्रीश पाठक]। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और व्यापारिक व सामरिक संबंधों की मजबूती के लिहाज से विदेश नीति का महत्व बढ़ता जा रहा है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान विदेश नीति के मोर्चे पर कई अहम निर्णय लिए और देश की प्रतिष्ठा बढ़ाई। दोबारा सत्ता में लौटी मोदी सरकार ने पिछली सरकार में विदेश सचिव रहे व्यक्ति को विदेश मंत्री बनाते हुए अपनी मंशा को स्पष्ट कर दिया कि वे विदेश विभाग को कितना महत्व देते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि आगामी वर्षो में भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और ख्याति हासिल कर सकता है, जिसका फायदा निश्चित रूप से सभी देशवासियों को मिल सकता है।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के केंद्र की सत्ता में वापसी के बाद सरकार विदेश नीति को व्यापक महत्व के साथ लेकर चलने को संकल्पित दिख रही है। स्थिर व मजबूत सरकारें विदेश नीति के लिहाज से बेहतर मानी जाती रही हैं। विदेश मंत्री के रूप में प्रचलित परंपरा को दरकिनार करते हुए पिछली सरकार में विदेश सचिव रहे डॉ. एस जयशंकर को नई सरकार में विदेश मंत्री चुना गया है। मोदी सरकार विदेश नीति के क्षेत्र में अपनी चुनौतियों एवं लक्ष्यों को लेकर पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है।
इसलिए महत्वपूर्ण हैं एस जयशंकर
आज समूचा विश्व अमेरिका और चीन के मध्य हो रहे व्यापार-संघर्ष के ताप को महसूस कर रहा है और उसी के अनुरूप अपनी विदेश नीति गढ़ रहा है, ऐसे में एस जयशंकर की नियुक्ति एक सक्षम संदेश भी है, क्योंकि उन्हें इन दोनों देशों में बतौर राजदूत रहने का भी अनुभव प्राप्त है। भारत-अमेरिका परमाणु संधि में प्रमुख भूमिका निभा चुके एस जयशंकर जहां एकतरफ अमेरिका से भारतीय संबंधों को एक नया आयाम दे सकेंगे, वहीं रूस से हमारे संबंधों में आए ठहराव को भी सुलझाने में कामयाब हो सकते हैं।
पड़ोस प्रथम की नीति
वर्ष 2014 में भारतीय जनता पार्टी को चुनावों में बहुमत हासिल होने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार के शपथ ग्रहण से ही कूटनीति सजाई गई। ‘पड़ोस प्रथम’ नीति के तहत दक्षेस राष्ट्रों को आमंत्रण भेजा गया और उनके राष्ट्राध्यक्षों की उपस्थिति की खूब चर्चा भी हुई थी। भारत-पाकिस्तान संबंधों में एक बार फिर उम्मीदें दिखने लगी थीं। पाकिस्तान के तत्कालीन मुखिया नवाज शरीफ भी शांति और सहयोग की ओर बढ़ने को उद्यत दिखते थे।
पाकिस्तान के अड़ियल रुख से ठिठका दक्षेस
अगस्त 2014 में पाकिस्तानी हाईकमीशन के कश्मीरी अलगाववादियों से हुई मुलाकात को भारत सरकार ने बेहद गंभीरता से लिया और अपनी नाराजगी व्यक्त की। नवंबर 2014 में हुए दक्षेस के काठमांडू सम्मेलन में भारत सहित सभी दक्षिण एशियाई देशों ने ‘शांति व समृद्धि के लिए और गहरी संबद्धता’ का आदर्श अपने लिए तय किया था। लेकिन यहां पाकिस्तान ने क्षेत्रीय संबद्धता के कई योजना प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया था, जबकि दूसरे सभी देश इन प्रस्तावों के लिए तैयार थे। भारत सरकार के नवीन प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान के इस अड़ियल रुख से दक्षेस फिर से ठिठक गया। भारत के पड़ोस में एक सफल क्षेत्रीय सहयोग का विस्तार करने के लिए दक्षेस की भूमिका अहम थी और इसमें पाकिस्तान का सहयोग भी अन्य देशों एक साथ अनिवार्य था। अतीत में भी दक्षेस की असफलता के लिए भारत-पाकिस्तान संबंधों की कड़वाहट ही जिम्मेदार रही थी।
चीन की वजह से फीकी पड़ी थी भारतीय चमक
पिछली नरेंद्र मोदी सरकार एक सक्रिय विदेश नीति की अपनी कोशिश में तो कामयाब रही, लेकिन अपनी ‘पड़ोस प्रथम नीति’ में अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिल सकी थी। दक्षेस पाकिस्तान की वजह से और भी अप्रासंगिक हुआ तो चीन की वजह से हिंद महासागर में भी भारतीय चमक फीकी पड़ रही थी। चीन के कारण पारंपरिक मित्र भूटान को जहां डोकलाम मसले पर अग्निपरीक्षा देनी पड़ी तो वहीं पाकिस्तान, मालदीव के बाद नेपाल भी चीन की तरफ अधिक झुकता गया। मालदीव में तो एकबारगी लगा कि भारत और चीन में एक टकराव की स्थिति बन सकती है, लेकिन वहां हुए आम चुनाव में जनता ने इब्राहिम मोहम्मद सोलीह को चुना जो चीन के सापेक्ष भारत के प्रति अधिक विश्वास रखते हैं। चीनी कर्ज में फसे श्रीलंका में मैत्रीपाल सिरिसेन के राष्ट्रपति बनते ही श्रीलंका भी भारत की ओर विश्वास से बढ़ने लगा।
मालदीव और श्रीलंका ही क्यों
नई मोदी सरकार विदेश नीति में सक्रिय तो रहने ही वाली है, बल्कि अपनी पड़ोस प्रथम नीति की सफलता के लिए इसने पिछले कार्यकाल के अनुभव का भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया है। पारंपरिक मित्र भूटान को जहां नए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपनी पहली विदेश यात्रा के रूप में चुना तो वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए पहली विदेश यात्रा के तौर पर मालदीव और श्रीलंका को चुना गया है। गौरतलब है कि पड़ोस प्रथम नीति की सफलता के लिए शुरुआत पड़ोस की उस जमीन से की गई है जो सर्वाधिक मजबूत है। मालदीव और श्रीलंका के लिए मोदी पहले से ही चल रही कई विकास योजनाओं के साथ ही कुछ और महत्वपूर्ण योजनाओं की शुरुआत करेंगे।
दक्षेस की जगह बिम्सटेक क्यों
केवल द्विपक्षीय संबंध, पड़ोस प्रथम नीति की सफलता के लिए काफी नहीं होंगे, जब तक क्षेत्रीय सहयोग को वरीयता न दी जाए। इसके लिए दक्षेस के स्थान पर इस बार बिम्सटेक को चुना गया। बिम्सटेक में भारत सहित कुल सात देश हैं- बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, म्यांमार और थाइलैंड। ‘एक्ट ईस्ट नीति’ में म्यांमार और थाइलैंड वैसे भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। फिर बिम्सटेक एक अनूठा संगठन है जो सेक्टर आधारित सहयोग की बुनियाद पर टिका हुआ है। इसके आर्थिक सहयोग के आंकड़े दक्षेस से अधिक प्रभावपूर्ण हैं और इसमें पाकिस्तान भी सदस्य नहीं है। अफगानिस्तान और मालदीव इसमें किसी भी प्रासंगिक वर्गीकरण में बाद में जोड़े जा सकते हैं। यह सोच शपथ ग्रहण में ही दिखी जब इस बार बिम्सटेक के सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों को न्यौता दिया गया और राष्ट्राध्यक्षों ने इसमें अपनी भागीदारी भी की।
बिम्सटेक की भूमिका
बिम्सटेक के जो महत्वपूर्ण 14 सेक्टर सहयोग के लिए रेखांकित किए गए हैं उनमें अधिकांश में भारत को एक प्रभावी भूमिका निभानी होगी और भारत फिलहाल तैयार भी दिखता है। बिम्सटेक में विश्व की करीब 22 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, इस लिहाज से यह खासा महत्वपूर्ण है। आशा है भारत के बिम्सटेक को महत्व देने की प्रक्रिया थाइलैंड के लुक वेस्ट नीति और भारत की एक्ट ईस्ट नीति में एक गहरे सहयोग की नींव रखेगी। बिम्सटेक, क्षेत्र में चीन के ओबोर नीति के प्रभाव को न्यूनतम करने की कोशिश तो करेगा ही, साथ ही सदस्य देशों में परस्पर ऊर्जा सहयोग को भी बढ़ावा देगा।
कैसा होगा भारत का रुख
दक्षेस की असफलता से सीखते हुए बिम्सटेक में भारत को मानवीय व वित्तीय संसाधन की व्यवस्था एक अनौपचारिक नेतृत्व देते हुए करनी होगी और एक लचीलापन भी अपने हितों को देखते हुए रखना होगा। पिछले वर्ष पूना में बिम्सटेक देशों ने सैन्य अभ्यास में भी भाग लिया था जिसमें थाइलैंड और नेपाल ने भाग नहीं लिया था, पर यह भारत के लिए क्षेत्र में अहम अभ्यास है, क्योंकि इससे सहयोगात्मक रक्षा कूटनीति का लक्ष्य भी सधता है।